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दर्शनशास्त्र क्या है ? दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा

By Roshan Ekka

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दर्शनशास्त्र क्या है ? दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा के संबंधों का वर्णन :

Darshan shastra aur shiksha 

दर्शनशास्त्र क्या है ? दर्शनशास्त्र का अर्थ ज्ञान की पिपासा को तृप्त करना, सत्य की खेजा करना तथा मानव – जीवन, ईश्वर तथा दृश्य जगत तत्वों की जानकारी प्राप्त करना है। दर्शनशास्त्र से हमें पता चलता है कि जीवन क्या है। और इसका उद्देश्य क्या है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना ही दर्शनशास्त्र का अभिप्राय है। इसलिए कहा गया है कि दर्शनशास्त्र जीवन की जटिल समस्याओं का हल निकालने का प्रयास करता है। यह मानव जीवन को अनुशासित करता है। संसार के महापुरुषों ने जीवन और जगत के विभिन्न पहलुओं पर चिंतन किया और ज्ञान अर्जित किया। वही ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शनशास्त्र का अभिप्राय है। मानव भौतिक दृष्टि से कितना ही विकास कर ले, चाहे वह चन्द्रमा पर पहुंच कर घर बना ले, समुद्र के गर्भ में प्रवेश करके वहां की जानकारी प्राप्त कर ले अथवा धनवान बन जाए। परंतु यदि वह आध्यात्मिक दृष्टि से दरिंद्र है तो उसका जीवन व्यर्थ है। 

अतः संक्षेप में हम कह सकते हैँ कि दर्शन शब्द का अभिप्राय है आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, जीवन, मोक्ष आदि विभिन्न पहलुओं पर चिंतन करना और मानव के आध्यत्मिक विकास में सहायक बनना। 

कुछ विद्वानों ने दर्शनशास्त्र की परिभाषाएँ इस प्रकार दी हैं- 

  1. बरट्रेण्ड रसेल के अनुसार, ” अन्य कियाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है।” 
  2. प्लेटो के अनुसार, ” प्लेटो के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” 
  3. फिक्टे के अनुसार, ” दर्शन ज्ञान का विज्ञान है।” 

शिक्षा का अर्थ एवं स्वरूप – शिक्षा के बारे में विद्वानों ने अलग – अलग विचार व्यक्त किए हैं – 

  1. स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ” मनुष्य में पहले विद्यामान आध्यामिक तत्त्व की पूर्णता ही शिक्षा है। 
  2. स्वीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, ” शिक्षा मनुष्य के जीवन का समस्त विश्व के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है।” 
  3. डाँ. जाकिर हुसैन के अनुसार, ” शिक्षा को सम्पूर्ण जीवन का कार्य माना है। वह जन्म से लेकर मृत्यु तक जारी रहता है।” 
  4. फोबल के अनुसार, ” बीज में जो विद्यमान है, उसे खोजना ही शिक्षा है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा अपनी वास्तविक योग्यताओं को बाहरी रूप प्रदान करता है।” 
  5. येस्तालोरी के अनुसार, ” शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का प्राकृतिक, सुसामंजस्य तथा प्रगतिशील विकास है।” 
  6. जाँन डी. वी. के अनुसार, ” शिक्षा व्यक्ति की उन सभी योग्यताओं का विकास है जो उसे वातावरण पर नियन्त्रण करने व अपनी सम्भावनाओं को पूरा करने में योग्यता प्रदान करती है। 
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दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा का सम्बन्ध – दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा का गहरा सम्बन्ध है। इसका विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है –

  1. जीवन के वास्तविक लक्ष्य का निर्धारण – दर्शनशास्त्र शिक्षा को सही रास्ता दिखाता है। 
  2. शिक्षा के विभिन्न पहलुओं का निर्धारण – दर्शनशास्त्र शिक्षा के विभिन्न पहलुओं का निर्धारण करता है। शिक्षा के उद्देश्यों, पद्धतियों, पाठ्यक्रम, अनुशासन की महत्ता आदि पर दर्शनशास्त्र का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। 
  3. शिक्षा दर्शन का गत्यात्मक रूप – मानव- जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं- सिद्धान्त स्थापित करना और उनमें सुधार करना। दर्शनशास्त्र जीवन के लक्ष्य निर्धरित करता है तथा उसके सिद्धान्तों का निमाण करता है। परंतु शिक्षा सिद्धान्तों को व्यवहार में लाती है। 
  4. महान दार्शनिक, महान शिक्षाशास्त्री – इतिहास इस बात का गवाह है कि सुकरात, महात्मा गांधी, टैगोर, डॉं. राधाकृष्णन आदि महान दार्शनिक होने के साथ – साथ महान शिक्षशास्त्री भी थे। इन सभी ने अपने – अपने दर्शन को शिक्षा की सहायता से व्यावहारिक रूप प्रदान किया। वस्तुतः शिक्षशास्त्री ही सच्चा दार्शनिक हो सकता है और सच्चा दार्शनिक सच्चा शिक्षाशास्त्री हो सकता है। 
  5. जीवन दर्शन सिद्धांतों पर आधारित प्रत्येक व्यक्ति का जीवन – दर्शन कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होता है। उसके सिद्धान्त दर्शाशास्त्र का ही कोई – न – कोई अंग होता है। उसके सिद्धान्त और विश्वास शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि शिक्षा दर्शन के सिद्धान्तों को व्यावहारिक बनाती है। जैसा दार्शनिक चिंतन होगा, वैसा ही शैक्षणिक दृष्टिकोण भी होगा। 
  6. शिक्षा दर्शन का व्यावहारिक पक्ष – हमारा जीवन – दर्शन किसी न किसी विश्वास पर आधारित होता है और यह जीवन दर्शन न केवल समाज के लिए, बल्कि शिक्षा के लिए भी उपयोगी होता है। इसलिए दर्शन को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता है। दर्शन सिद्धान्तों का निर्माण करता है और शिक्षा उन्हें न्याखहारिक रूप प्रदान करती है। दर्शन जीवन में शिक्षा के महत्त्व की खोज करता है। जिस प्रकार uकला, धर्म, समाज आदि का दर्शन होता है, उसी प्रकार शिक्षा का भी दर्शन होता है। यही कारण है कि दर्शन की अनेक बातें शिक्षा का ही अंग होती है। 
  7. दर्शन और शिक्षा एक दूसरे पर निर्भर – दर्शन और शिक्षा में घानिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि दोनों विषय एक – दूसरे के लिए उपयोगी हैं। 
  8. शिक्षा दर्शन का संरक्षण करती है – शिक्षा के माध्यम से ही दार्शनिक सिद्धान्तों और विचारधाराओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाया जा सकता है। शिक्षा के बिना मानव जाति को दार्शनिक सिद्धांतों का ज्ञान ही नहीं हो सकता। इसलिए शिक्षा का महत्व और बढ़ जाता है। 
  9. शिक्षा दर्शन के अस्तित्व का कारण – दर्शनशात्र सृष्टि, आत्मा, परमात्मा, जीवन जगत आदि की व्याख्या करता है, परंतु शिक्षा ही इस चिंतन को जीवित रखती है। शिक्षा के माध्यम से ही हम दार्शनिक ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। अतः शिक्षा और दर्शन का परस्पर गहरा सम्बन्ध है।
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दर्शनशास्त्र को विस्तार से समझते है : 

दर्शनशास्त्र के क्षेत्र का वर्णन : दर्शनशास्त्र की विचारधारा अत्यधिक पुरानी है। यह शब्द ‘दर्शन’ तथा ‘शास्त्र’ के मिलने से बना है। दर्शन शब्द का अर्थ है – देखना अर्थात् जीवन और जगत के प्रति एक दृष्टिकोण रखना। मानव ने जब से इस पृथ्वी पर जन्म लिया है, तब से वह अपने विभिन्न संबन्धों को समझने का प्रयास कर रहा है। वह मानव के जन्म, उद्देश्य, कारण, विभिन्न सम्बन्धों आदि को समझना चाहता है और संसार की प्रक्रिया को जानता चाहता है। इसी को हम दार्शनिकता कह सकते हैं। 

दर्शन शब्द का अर्थ- अंग्रेजी भाषा में दर्शन को Philosophy कहते हैं जो कि यूनानी भाषा के दो शब्दों से बना है – Philos तथा Sophia। Philos का अर्थ है – प्रेम तथा Sophia का अर्थ है – ज्ञान। इस प्रकार दर्शन शब्द का अर्थ हुआ – ज्ञान से प्रेम करना। मानव अपने जीवन और चारों ओर फैले हुए संसार के ज्ञान को प्राप्त करने का इच्छुक है और यही दार्शनिकता कहलाती है। 

  1. बरट्रेण्ड रसेल के अनुसार, ” अन्य क्रियाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है।” 
  2. प्लेटो के अनुसार, ” प्लेटो के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” 

दर्शशास्त्र के क्षेत्र – 

दर्शन के क्षेत्र निम्नलिखित हैं – 

  1. ज्ञान मीमांसा 
  2. तत्व मीमांसा 
  3. मूल्य मीमांसा। 
  1. ज्ञान मीमांसा – ज्ञान मीमांसा को ज्ञान शास्त्र भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान के स्रोत, ज्ञान की सीमा के बारे में विचार किया जाता है अर्थात ज्ञान मीमांसा में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि मानव अन्तिम सत्य का ज्ञान प्राप्त कर सकता है या नहीं। पहला मत तो है कि अंतिम सत्य का ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। दूसरा मत यह है कि आन्तिम सत्य का ज्ञान प्राप्त करना संभव है, परन्तु यह पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता, केवल आंशिक रूप में ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। तीसरा यह भी विचार व्यक्त किया गया है कि यह निर्णय कठिन है कि किसी के पास ज्ञान है अथवा नहीं। इस संदर्भ में सन्देह की स्थिति बनी रहती है। 
  2. तत्व मीमांसा – इसके लिए अंग्रेजी में शब्द है ( Metaphysics) इसका अर्थ हुआ जो भौतिक विज्ञान से भी परे है, उसे हम तत्त्व ज्ञान भी कहते हैं। इसकी अनेक शाखाएं हैं। यह मानव की आत्मा, शरीर, ईश्वर तथा प्रकृति के ज्ञान से सम्बन्धित है। 

(¡) सत्ता मीमांसा – इसमें सत्य के बारे में अध्ययन किया जाता है और यह पता लगाने का प्रयास किया जाता है कि संत्य एक है या अनेक। यदि सत्य के अनेक रूप हैं तो उनका पारस्पारिक सम्बन्ध क्या है? 

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(¡¡) सृष्टि शास्त्र – इसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सृष्टि की रचना कैसे हुई और क्यों हुई और सृष्टि की रचना किसने की ? 

(iii) ब्रह्मांड विज्ञान – इस विज्ञान के अंर्तगत ब्रह्मांड के बारे में अध्ययन किया जाता है और पता लगाने का प्रयास किया जाता है कि ब्रह्मांड एक है अनेक हैं। यदि ब्रह्मांड अनेक हैं तो उनका पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ? 

(iv) युगान्त विज्ञान- इस विज्ञान का सम्बन्ध जीवन के अंत से है। इसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है? उसकी स्थिति क्या होती है? 

(v) आत्मदर्शन बिज्ञान – इस विज्ञान में मानव स्वयं का अध्ययन करता है और यह जानने का प्रयास करता है कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मृत्यु के बाद कहाँ जाऊंगा। आत्मा का शरीर के साथ क्या संबध है? 

(3) मूल्य मीमांसा – इसे मूल्य शास्त्र भी कहते हैं। मूल्य मीमांसा में मूल्यों का दार्शनिक द्वाष्टि से विवेचन किया जाता है। संसार में जब भी कोई व्यक्ति काम करता है तब वह सोचने लगता है कि इसका मूल्य क्या है? इसी प्रकार मूल्य मीमांसा में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् तीन मूल्यों का अध्ययन किया जाता है। इसकी तीन उपशाखाएं है – 

(¡) सौन्दर्य शास्त्र – इस शास्त्र में सौन्दर्य के अर्थ, स्वरूप तथा प्रकृति का अध्ययन किया जाता है।

(iii) नीतिशास्त्र – इसे नैतिक दर्शन भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत अच्छे- बुरे, सही – गलत, उचित – अनुचित का अध्ययन किया जाता है।

(iii) तर्कशास्त्र – इस शास्त्र में तर्क सम्बन्धी नियमों तथा विधीयों का विवेचन किया जाता है और यह पता लगाया जाता है कि तर्क कैसे किया जाता है। कल्पना, अनुमान, तुलना, विभाजन, वर्गीकरण आदि की परिभाषा देकर तर्कशास्त्र के सभी पहलुओं को जानने का प्रयास किया जाता है। 

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