नमस्कार दोस्तों आप लोग कैसे हैं आज इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि भारतीय शिक्षा पर गांधीवादी दर्शन का क्या प्रभाव था और साथ ही साथ जानेंगे की महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा पर क्या विचारधारा थी ।
भारतीय शिक्षा पर गांधीवादी दर्शन का प्रभाव :
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1969 ई. को गुजरात काठियावाड़ के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था इनके पिता का नाम करमचंद गांधी तथा माता का नाम श्रीमती पुतलीबाई थी 13 वर्ष की छोटी आयु में बालक मोहनदास का विवाह कस्तूरबा से हो गया कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे 1887 में विलायत चले गए और वहां से वकील बनकर लौटे किसी धनी भारतीय का मुकदमा लड़ने के लिए वह दक्षिण अफ्रीका गए । वहीं उन्होंने सत्य, अहिंसा के गुणों का प्रयोग किया । भारत लौटकर गांधी जी ने देश को आजाद करने के लिए असहयोग आंदोलन, दांडी यात्रा तथा भारत छोड़ो आंदोलन भी चलाया ।
नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 ईस्वी को गांधी जी को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी । महात्मा गांधी एक महान दार्शनिक शिक्षा शास्त्री तथा समाजशास्त्रीय थे । उन्हें ईश्वर में अटूट विश्वास था ।
सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, प्रेम, वर्ग ही इन समाज की स्थापना, आदि उनके प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धांत है ।
इन्हीं दार्शनिक विचारों से गांधी जी ने भारतीय शिक्षा पद्धति को प्रभावित किया । उनका स्पष्ट कहना था – ” साक्षरता ना तो शिक्षा का अंत है ना आरंभ, यह केवल एक समाधान है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है । ”
(का) गांधीजी के दार्शनिक विचार – गांधीजी ना केवल स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवक और चिंतक थे, बल्कि उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री भी थे । उन्होंने शिक्षा पर अनेक पुस्तकें लिखी । गांधीजी के निमित्त लिखित दार्शनिक सिद्धांत है –
- ईश्वर में पूर्ण विश्वास – गांधीजी ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे । वह ईश्वर को सर्वव्यापक मानते थे । उनके अनुसार ईश्वर ही अंतिम सत्य और सर्वोच्च शासक है । वह सत्य है, प्रेम है, नैतिकता है तथा प्रकाश और जीवन का स्रोत है । वह निर्णय करता है, विनाश करता है तथा फिर निर्णय करता है ।
- सत्य और अहिंसा में विश्वास – गांधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे । वह सत्य को सार्वभौमिक एवं परम सत्ता स्वीकार करते थे । उनका संपूर्ण जीवन सत्य के लिए एक प्रयोग था । उनका सत्य, शिवम और सुंदरम् में पूरा विश्वास था । उनका कहना था कि सत्य को विस्तृत अर्थ में ग्रहण करना चाहिए और विचार भाषण तथा कार्य में भी सत्यता होनी चाहिए ।
गांधी जी का यह भी कथन था कि सत्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा सबसे बड़ा साधन है । हिंसा से पूर्ण मुक्ति अहिंसा है । अहिंसा से मुक्त का मतलब है – घृणा, क्रोध, भय, अहंकार तथा को भावना से मुक्ति । अहिंसा से मानव में विनर ममता उदारता प्यार, धैर्य, हृदय की शुद्धता आदि प्रवृतियां विकसित होती है । अहिंसा केवल नकारात्मक प्रत्यय नहीं है । इसका सकारात्मक प्रत्यय अत्याधिक प्रबल है । सकारात्मक पक्ष के रूप में अहिंसा प्राणी मात्र से प्रेम करने को प्रेरणा देती है ।
- सत्याग्रह – सत्याग्रह अहिंसा का व्यवहारिक प्रत्यन है । यह दूसरों को दुख देने के बजाय स्वयं दुख देकर न्याय प्राप्त करने की विधि है । सत्याग्रह के द्वारा शांति की रक्षा की जा सकती है । सच्चा सत्यवादी वह है जो सत्य, अहिंसा अभम, अस्तेय तथा असंचय मे विश्वास रखता है । इन सब गुणों के होने के कारण वह सत्य पर अटल रहना सीखेगा ।
- प्रेम – गांधीजी मानव प्रेम में दृढ़ विश्वास रखते थे । उनके लिए प्रेम नैतिकता का सार है, प्रेम के बिना किसी प्रकार की नैतिकता संभव नहीं, प्रेम से ही सत्य प्राप्त होता है । प्रेम मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है । प्रेम के कारण सभी कर्तव्य आनंद में हो जाते हैं । अतः समस्त जीवन का मार्गदर्शन प्रेम के द्वारा ही होना चाहिए ।
- वर्क हीन समाज की स्थापना – गांधीजी वर्ग हीन समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें उच्च नीच गरीब अमीर सभी के साथ समानता का व्यवहार हो । वे अस्पृश्यता को सबसे बड़ा अभिशाप मानते थे तथा हरिजनों का धार करना उनका प्रमुख कार्य था । संप्रदायिक तनाव कम करने के लिए उन्होंने अथक प्रयत्न किया ।
- आध्यात्मिक समाज की स्थापना – गांधीजी प्रेम, सत्य, अहिंसा, न्याय तथा धन के सम वितरण के सिद्धांतों पर आधारित आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना चाहते थे । यह समाज सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक प्रत्येक प्रकार के शोषण से मुक्त होगा । इसमें किसी प्रकार के झगड़े नहीं होंगे । नैतिक शक्ति तथा नैतिक मानवता की इस समाज का मार्गदर्शन करेगी । सब की सेवा करना इस समाज के प्रत्येक व्यक्ति का आधारभूत कर्तव्य होगा ।
(ख) भारतीय शिक्षा पर गांधी दर्शन का प्रभाव – गांधीजी केवल दार्शनिक नहीं थे, बल्कि एक बहुत बड़े समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ तथा धार्मिक नेता भी थे । अपने दार्शनिक विचारों को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने शिक्षा का सहारा लिया । वे तत्कालीन पुस्तकीय, सिद्धांत एक तथा संकुचित शिक्षा पद्धति से संतुष्ट नहीं थे ।
शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अनेक प्रयोग किए और सन 1937 में एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार की जो कि उनके दार्शनिक विचारों से अत्यधिक प्रभावित है । सर्वप्रथम उन्होंने धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की वकालत की । साथ ही उन्होंने शिक्षा का संस्कृतिक उद्देश्य भी निर्धारित किया । एक स्थल पर वह कहते भी है – ” मैं शिक्षा में साक्षरता की अपेक्षा संस्कृतिक तत्व को अधिक महत्व देता हूं । संस्कृतिक प्रारंभिक एवं आधारभूत वस्तु है जिससे लड़कियों को स्कूल से प्राप्त करना चाहिए ।”
गांधीजी शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थेऔर बच्चे की आध्यात्मिक उन्नति के लिए शिक्षा को उतना ही अवश्य समझते थे जितना कि बच्चे के शरीर के विकास के लिए मां का दूध ।
यही कारण है कि उन्होंने अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा पर बल दिया । उनका यह भी कहना था कि शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए क्योंकि मातृभाषा के अध्ययन द्वारा ही हम अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं । सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह आदि गांधी जी को अत्यधिक प्रिय थे । अतः उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षा द्वारा सामाजिक तथा राजनीतिक बुराइयां दूर की जा सकती है ।
वह वर्गीय समाज की स्थापना के घर थे और देश की निर्धनता के प्रति अत्यधिक चिंतित थे । उन्होंने इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए अपने शिक्षा योगदान में हस्त कौशल अनिवार्य रूप में रखा तथा क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया ।
इसके साथ-साथ गांधी जी सत्य को ईश्वर मानते थे और उनकी प्राप्ति के लिए प्रेम और अहिंसा को साधन | उन्होंने शिक्षा द्वारा इसकी प्राप्ति पर सबसे अधिक बल दिया । वह अमीर और गरीब सभी को श्रम के महत्व से अवगत करा देना चाहते थे । इसलिए उन्होंने अपने शिक्षा योजना में सबसे अधिक बल क्रिया और समाज सेवा के कार्य पर दिया । वह शिक्षा द्वारा मनुष्य को स्वावलंबी बनाना चाहते थे और उसे देश का एक ऐसा नागरिक बनाना चाहते थे कि वह अपना तथा अपने समाज का और अंत में पूरे संसार का हित समाधान कर सके । इसलिए वे बच्चों के शारीरिक मानसिक चरित्रिक नैतिक एवं व्यवसायिक सब प्रकार का विकास करना चाहते थे । आध्यात्मिक विकास के बिना तो वह शिक्षा को अपूर्ण ही मानते थे । गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचारों को हम निम्नलिखित शीर्ष को के अंतर्गत अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं –
- गांधीजी ने भारत जैसे निर्धन देश के लिए व्यवसायिक शिक्षा पर अधिक बल दिया ।
- गांधीजी संस्कृति को जीवन का आधार मानते थे । अतः उन्होंने नैतिक और संस्कृतिक शिक्षा के प्रचार पर बल दिया ।
- गांधीजी शिक्षा द्वारा बच्चों का चारित्रिक विकास करना चाहते थे ताकि उनमें साहस, विश्वास,सच्चाई, शुद्धता, मानव सेवा आदि नैतिक मूल्यों का विकास हो सके ।
- गांधीजी बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास करना चाहते थे । उनका कहना था कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों का शारीरिक विकास करें और साथ ही साथ उनके मन और आत्मा का भी विकास करें ।
- गांधी जी का कहना था कि मानव जीवन का उद्देश्य मुक्ति, आत्मानुभूति तथा आतमज्ञान होना चाहिए । पता है बच्चों को धार्मिक शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए । एक स्थल पर वह कहते भी है, ” नैतिक चरित्र का विकास, पूर्ण मानव का विकास सभी आत्मानुभूति के अंतिम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं जहां ससीम असीम से मिल जाता है ।”
गांधीजी एक धार्मिक व्यक्ति होने के साथ-साथ एक व्यवहारिक व्यक्ति भी थे । वह तत्कालीन शिक्षा पद्धति के 200 से अवगत थे उन्होंने अनुभव किया कि तत्कालीन शिक्षा प्रणाली ना केवल जीवन से दूर है बल्कि उनके आदर्श बड़े संकुचित है । वह केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही देती है व्यवहारिक ज्ञान नहीं देती । वह शिक्षा प्रणाली सार्वभौमिक नहीं थी ।
विशेषकर भारत के निर्धन किसानों के लिए महंगी थी । वह केवल बौद्धिक विकास कराती थी । व्यक्ति को स्वतंत्र नहीं बनाती थी । वह वर्ग भेदभाव को प्रोत्साहित करती थी और उनमें स्वालंबन का अभाव था । गांधी जी ने एक नवीन शिक्षा प्रणाली का विकास किया है जिसे उन्होंने एक बुनियादी शिक्षा कहा । इसकी मूलभूत सिद्धांत किस प्रकार है –
- निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था – गांधी जी ने यह सुझाव दिया कि 7 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निशुल्क शिक्षा होनी चाहिए ताकि देश के निर्धन किसानों और मजदूरों के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर सके । उनका विचार था कि देश के निर्धन बच्चों को शिक्षा से वंचित करना उनके अधिकारों का हनन करना है मानवता की कसौटी पर यह हिंसा है ।
- शिक्षा का माध्यम अमृत भाषा- गांधी जी ने यह सुझाव दिया कि मृत भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए । बच्चे जन्म के कुछ दिनों बाद ही मृत भाषा को सीख जाते हैं और भाषा पर उनका सहज अधिकार हो जाता है । अतः यदि मृत भाषा में शिक्षा दी जाएगी तो वह विषय वस्तु को आसानी से ग्रहण कर लेंगे ।
- जीवन से संबंधित – गांधी जी का यह कहना भी था कि शिक्षा जीवन से संबंधित होनी चाहिए । ताकि विद्यार्थी अपने जीवन की समस्याओं का हल निकाल सके और अपने जीवन का आगे विकास कर सके । वह पुस्तक विज्ञान से विरोध थे । जीवन से जुड़ी हुई शिक्षा बच्चे को कुछ करके सीखने का अवसर प्रदान कर आती है ।
- शिल्प द्वारा शिक्षा – गांधी जी का यह भी कहना था कि इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, चित्रकला आदि विषयों को शिक्षा शिल्प के माध्यम से दी जानी चाहिए । इससे बच्चे अपने हाथों से काम करना सीख जाते हैं और वह श्रम के महत्व को समझने लगते हैं ।
- स्वालंबन पर बल – गांधी जी का विचार था कि भारत जैसे निर्धन देश में बच्चों को शिक्षा देना कठिन है । इसलिए गांधीजी ने इस बात पर बल दिया कि बेसिक शिक्षा में बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए कि वह हस्तकला एवं उद्योग द्वारा कुछ धन कमाकर स्वावलंबी बने और अपनी शिक्षा का खर्चा स्वयं वहन करें ।
- सार्वभौमिक शिक्षा – गांधीजी ने बेसिक शिक्षा में यह भी सुझाव दिया कि शिक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए अर्थात 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए सार्वभौमिक शिक्षा ही लाभकारी है । क्योंकि लोकतंत्र की सफलता शिक्षा पर ही निर्भर करती है ।
- अहिंसा पर बल – गांधीजी लोगों को अहिंसा वादी बनाना चाहते थे । उनका कथन था कि बच्चों को अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए उन्हें किसी हस्त कार्य या उद्योग में व्यस्त करना चाहिए । बच्चे निडर होकर आत्माभिव्यक्ति कर सकेंगे और उनका सर्वागीण विकास होगा ।
- मूल प्रवृत्तियों का उपयोग – गांधीजी शिक्षा के द्वारा बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का उपयोग करना चाहते थे । अतः गांधीजी ने सिल्क केंद्रित शिक्षा पर बल दिया ।
- सहसंबंध की शिक्षा – गांधीजी चाहते थे कि बच्चों में परस्पर सहयोग की भावना उत्पन्न होनी चाहिए । उन्होंने इतिहास, भूगोल, विज्ञान, गणित सभी विषयों में सन संबंध स्थापित करके शिक्षा देने की वकालत की । इसके लिए उन्होंने हस्त कार्य अथवा उद्योगों को केंद्र बनाकर शिक्षा देने की बात कही ।
- शिक्षा में धर्म का स्थान – गांधीजी धर्म को शिक्षा का आवश्यक तत्व मानते थे । उनका विचार था कि धर्म के बिना जीवन का कोई सिद्धांत नहीं होता । वह चाहते थे कि प्रत्येक बच्चे को स्कूल में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया जाना चाहिए । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि गांधीजी की बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत बड़े ही प्रगतिशील और उपयोगी है । यही कारण है कि इसे नहीं तालीम भी कहा गया । इसे शिक्षा की ” बधाई योजना” भी नाम दिया गया है । गांधीजी ने स्पष्ट कहा, ” शिक्षा से मेरा तात्पर्य है बालक तथा मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के भीतर विद्वान गुणों का सब प्रकार से सर्वोत्तम विकास करना है ।”
जबसभी बच्चे मानसिक और शारीरिक श्रम करेंगे तो उनका भेदभाव दूर हो जाएगा और शोषण समाप्त हो जाएगा । शोषण की समाप्ति ही अहिंसा है ।
8.नागरिकता का विकास – गांधी जी का यह भी कथन था कि बच्चों में अच्छी नागरिकता के गुण पैदा किए जाने चाहिए । यदि बच्चों को समाज सेवा के योग्य बनाया जाएगा तो उनके चरित्र का समुचित विकास होगा । यह कार्य शिक्षा द्वारा ही संभव है ।
बेसिक शिक्षा के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत –
बेसिक शिक्षा के कुछ मनोवैज्ञानिक सिद्धांत भी है –
- शिशु केंद्रित शिक्षा – गांधीजी ने अपनी बुनियादी शिक्षा में शिशु केंद्रित शिक्षा पर बल दिया ।उनका कथन था की अध्यापकों को बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में पूर्ण सहयोग देना चाहिए और उनके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए ।
- कार्य करते हुए सीखना – गांधी जी का यह भी कथन था कि विद्यार्थियों को कोई ना कोई क्रिया करते हुए विषय से संबंधित ज्ञान देना चाहिए । ऐसा करने से बच्चे विषय को शीघ्र समझ जाते हैं ।
- खेलो द्वारा रचनात्मक कार्य – गांधी जी का यह भी कथन था कि बच्चों के लिए ऐसे खेल चुने जाने चाहिए जिनसे किसी वस्तु की रचना हो सके । ऐसा करने पर बच्चों को आत्माभिव्यक्ति करने का मौका मिलेगा और उनकी अन्तर्निहित प्रतिभा और कुशलता बाहर निकलकर विकसित होगी ।
- प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार – गांधी जी का यह भी कहना था कि अध्यापक को बच्चों के साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए ।
- नारी शिक्षा पर बल – गांधीजी ने अपनी बेसिक शिक्षा में नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया । वह नारी की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे उनका विचार यह है कि एक शिक्षित नारी ही बच्चों के शिक्षण कार्य के लिए सर्वोत्तम योग्यता रखती है ।
निष्कर्ष : आशा है आपको यह लेख जरूर पसंद आया होगा । इस लेख के माध्यम से हमने भारतीय शिक्षा पर गांधीवादी दर्शन का क्या प्रभाव था तथा गांधी जी की बुनियादी शिक्षा पर क्या विचारधारा थी जाना है ।
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