बच्चों के क्रोध (संवेग) (Emotion of Anger)

 

बच्चों के क्रोध (संवेग) (Emotion of Anger)

क्रोध एक नकारात्मक संवेग है। जब किसी व्यक्ति की कोई इच्छा पूरी नहीं होती या उसकी इच्छा उपेक्षित हो जाती है तो उसमें क्रोध नामक संवेग उत्पन्न होता है। जिस व्यक्ति या जिस वस्तु के कारण इस प्रकार की बाधा सामने आती है, वह वस्तु या व्यक्ति संवेग का प्रेरक हो जाता है और उसके प्रति संवेग युक्त व्यक्ति में तीव्र वैमनस्य की भावना उत्पन्न होती है। वह प्रेरक व्यक्ति का भारी नुकसान करने को तैयार हो जाता है।

 

अन्य संवेगों की अपेक्षा क्रोध का संवेग बालकों में अधिक पाया जाता है। क्रोध प्राणी की आन्तरिक अनुभूति है, जिसमें वह किसी उद्दीपक या वस्तु के प्रति आक्रामक व्यवहार का प्रदर्शन करता है। साधारण बच्चे तभी गुस्से में आते हैं जब उन्हें वांछित कार्य के लिए रोका जाता है। उनकी प्रिय वस्तु को उनसे छीन लिया जाता है या दूसरें बच्चों द्वारा उन पर आक्रमण किया जाता है। भिन्न – भिन्न बच्चों में क्रोध की  प्रतिक्रियाओं या अभिव्यक्ति की तीव्रता एवं आवृति भिन्न भिन्न होती है। क्रोध की अवस्था में प्राणी में आन्तरिक तथा बाह्य अनेक प्रकार के परिवर्तन दिखाई देते हैं। छोटा बच्चा अपने क्रोध की अवस्था में प्राणी में आन्तरिक तथा बाह्य अनेक प्रकार के परिर्वतन दिखाई देते हैं। छोटा बच्चा अपने क्रोध को रोककर, चीजों को तोड़- जोडकर अथवा दूसरे बच्चों के साथ मार पीटकर दर्शाता है। कुछ बड़े बच्चों द्वारा हाथ पैर मारकर एवं ठोकर मारकर अपने क्रोध को अभिव्यक्त किया जाता है।

  1. अभिव्यक्ति या प्रकाशन – शैशवावस्था में इस संवेग के उठने पर शिशु हाथ-पैर पटकता है, रोता है, चिल्लाता है और इस प्रकार अपने अन्दर के असन्तोष को व्यक्त करता है। क्रोध के समय वह डाँट-फटकार, गाली गलौच, मार – पीट, बुराई अथवा अपमान करने लगता है। क्रोध करने वाले व्यक्ति का चेहरा लाल हो जाता है, होंठ फड़कने लगते हैं तथा माँसपेशियों में तनाव आ जाता है।
  2. क्रोध संवेग से हानियाँ- क्रोध की दशा में व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है तथा गलत कार्य करता है। उसके शरीर के कुध रासायनिक पदार्थ निकलकर खून में मिल जाते हैं एवं उसके स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं। क्रोध की अवस्था में मनुष्य की मानसिक तथा शारीरिक शक्तियॉ नष्ट हो जाती हैं। इससे मानव की पाचन क्रिया, रक्त के वेग तथा रक्तचाप पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  3. क्रोध संवेग से लाभ – क्रोध संवेग की स्थिति में मानव की शक्ति बढ़ जाती है और वह सामान्य की अपेक्षा बड़ा काम कर जाता है। मानव अपनी असफलता पर क्रोध करके पूरा जोर लगाकर उन्नति करना आरंभ कर देता है। युद्ध में सैनिक शत्रु के प्रति क्रोध करके उसे हराने की कोशिश करता है।
  4. बच्चों के संवेगात्मक विकास के लिए अध्यापक का योगदान – बच्चों से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के संवेगों को यदि उचित दिशा दी जाए तो इन संवेगों का प्रयोग सकारात्मक रूप से किया जा सकता है। इस कार्य में न केवल माता – पिता बल्कि अध्यापक भी प्रशंसनीय योगदान दे सकता है। कारण यह है कि बच्चे अपना अधिकतर समय घर की बजय स्कूल में व्यतीत करते हैं। अतः बच्यों के संवेगात्मक विकास में अध्यापक की भूमिका विशेष महत्त्व रखती है। इस संदर्भ में निम्नलिखित विवेचन उपयोगी होगा –
  1. प्रायः ऐसा देखा गया है कि बच्चों के संवेगात्मक विकास में परिवार का अत्यधिक योगदान होता है। माता-पिता इस सम्बन्ध में अध्यापक को बच्चों के बारे में सही और महत्वपूर्ण जानकारियाँ दे सकते हैं। अतः अध्यापक बच्चों के संवेगों के विकास के लिए उनके माता – पिता का सहयोग ले सकते हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि को समझकर ही अध्यापक का ऐसा सहयोग अधिक लाभकारी हो सकता है। इस सहयोग के अन्तर्गत माता पिता, अध्यापक को बच्चों की रूचियों, अभिरूचियों, आवश्यकतओं तथा उसके दैनिक व्यवहारों के बारे में सूचित कर सकते हैं।
  2. संवेगों का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि अध्यापक संवेगों की अभिव्यक्ति के क्या क्या अवसर प्रदान करता है। एक अध्यापक इन संवेगों की अभिव्यक्ति के लिए उचित अवसरों की व्यवस्था कर सकता है जैसे – स्कूलों की सभी कियाएँ बाल केन्द्रित होनी चाहिएं ताकि उनकी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। आवश्यकतओं को पूरा किया जा सके। आवश्यकताओं की यह पूर्ति संवेगों के विकास को एक आधार और दिशा प्रदान करती है।
  3. अध्यापक और उसका आदर्श – बच्चे अक्सर अपने अध्यापक को अपना आदर्श मानकर उन्हीं का अनुकरण करते है। अतः स्वयं अध्यापक को संवेगात्मक रूप से संगठित और नियंत्रित आदर्श के रूप में बच्चों के सम्मुख आना चाहिए ताकि बच्चे उसके सही रूप का ही अनुकरण करें।
  4. किशोरों और अध्यापकों में मधुर सम्बन्धों का होना अति आवश्यक है। इनमें आपस में स्नेह होना चाहिए। यह तभी हो सकेगा अगर अध्यापक किशोरों के व्यक्तित्व का आदर करेंगे। बालकों में स्वाभिमान होता है। अतः वे अपना अपमान कभी सहन नही करेंगे। इस प्रकार अनेक संवेगों को नियंत्रण में रखा जा सकता है तथा स्नेह, सम्मान और सहयोग आदि को विकसित किया जा सकता है।
  5. अधिगम प्रक्रिया में संवेगों का भारी महत्व होता है। अधिगम प्रकिया में संवेगों का संतुलन बनाये रखना अति आवश्यक होता है। स्वास्थ और नियंत्रित संवेग की कुशलता में वृद्धि करते हैं।
  6. अकसर ऐसा पाया गया है कि विद्यार्थी के संवेगात्मक विकास और उसके स्वास्थ्य एवं शारीर विकास में गहारा सम्बन्ध होता है। शारीरिक विकास और स्वास्थ्य का परीक्षण एक अध्यापक बच्चों तथा किशोरों को प्रभावी ढंग से प्रदान कर सकता है। बदले में बच्चों और किशोरों का संवेगात्मक विकास प्रभावित होता रहता है। इस प्रकार अध्यापक शारीरिक और स्वास्थ्य के विकास हेतु प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए बच्चों के माता – पिता से सहयोग अर्जित कर भी सकता है तथा सहयोग प्रदान भी कर सकता है।
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