लेख -स्वराज पर गाँधी के विचार

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स्वराज पर गाँधी के विचार

गाँधी को ना ही दार्शनिक कहा जा सकता और न ही राजनीतिक चिंतक। फिर भी वह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष में उन्होंने व्यक्ति, समाज, अर्थव्यवस्था, राज्य, नैतिकता तथा कार्यपद्धति के रूप में अहिंसा पर आधारित अपने विशिष्ट विचारों का निर्माण किया। उसने राजनीति में आदर्शवाद को महत्व दिया तथा यह सिद्ध किया कि नैतिकता ही राजनीति का सच्चा और एक मात्र आधार है। उसके चिंतन के अधिकतर प्रेरणास्त्रोत स्वदेशी ने परन्तु उसने परिचमी दार्शनिक चिंतन के मानवतावादी और उग्रवादी विचारों को भी आत्मसात किया।

इस मिश्रण से उसने विचार और व्यवहार का एक ऐसा कार्यक्रम तैयार किया। इस कार्यक्रम तैयार किया जो शुद्ध रूप से उसका अपना था।

गाँधी का राजनीतिक और नैतिक चिन्तन सरल आध्यात्मिकता पर आधारित है। उनके अनुसार यह ब्रह्माण्ड ‘ सर्वोच्च बौद्धिकता ( Supreme intelligence) अथवा ‘सत्य’ या ‘ईश्वर’ द्वारा संचालित है। यह बौद्धिकता सभी प्राणियों में निवास करती है, विशेष कर व्यक्ति में, जिसे ‘ आत्म चेतना ‘ अथवा ‘ ‘आत्मा’ का नाम दिया जाता है। यह आत्मा ही मानव जीवन का सार है। क्योंकि संपूर्ण मानव मात्र इस दैविक अंश से अनुप्राणित होते हैं अतः अंततोगत्वा सभी एक हैं। वे केवल समान ही नहीं बाल्कि एक समान हैं। इसी तरह क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में दैविक अंश विद्यमान हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही भला होता है तथा इस भलाई की खोज और उसका संवर्धन ही मानव जीवन का उद्देश्य हैै। गांधी ने इसे आत्म – अनुशासन और अहिंसा द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति भी कहा है। दूसरे शब्दों में, मानवीय परिपूर्णता केवल एक आर्दश ही नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में इसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा भी होती है। व्यक्ति का सामाजिक और राजनीतिक जीवन इस ‘भलाई ‘ अथवा ‘ गुण ‘ के ज्ञान और प्रकाश से संचालित होना चाहिए। व्यक्ति का जीवन वास्तव में इस महान सत्य की खोज है, चाहे इस खोज के मार्ग में जितनी ही बाधाएँ आयें। गांधी व्यक्ति की परिपूर्णता के विचार से इतना अधिक प्रभावित थे कि उनका दृढ़ विश्वास था की अंत में केवल सत्य और भलाई की ही जीत होगी और असत्य पतझड़ के पत्तों की तरह गिर कर बिखर जाऐगा। सत्य और भलाई की इस खोज में बुराई ( बुराई वह जो व्यक्ति के दैविक अंश का नाश करती है। ) का ज्ञान, उसकी समझ तथा उसे ठीक करना व्यक्ति की रचनात्मक शक्ति के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस अच्छाई और बुराई के अंतर के संदर्भ में ही गांधी के भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था, धर्म, छुआछूत, संपत्ति, औद्यागीकरण, राजनीति और राज्य के प्रति विचारों को समझा जा सकता है।

स्वराज पर गांधी के विचार ( Gandhi’s Views on Swaraj )

परंपरागत राजनीतिक सिद्धात का संबध व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राज्य की सत्ता के अध्ययन से रहा है। परंतु भारतीय राजनीतिक चिंतन में यह स्वराज अथवा आत्म – शासन (self-rule) की धारणा रहा है जो राजव्यवस्था के अंतर्गत आत्म – निर्णय अथवा स्वाधीनता प्राप्त करने का तरीका है। आधुनिक युग में स्वराज शब्द का प्रयोग दादा भाई नौरोजी तथा तिलक ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संदर्भ में किया। यहाँ इसका अर्थ संपूर्ण राष्ट्र से था, किसी व्यक्ति विशेष से नहीं। इसी तरह उग्रवादियों ने ब्रिटिश वस्तुओँ के बहिष्कार को न्यायोचित ठहाराने के लिए एक अन्य शब्द ‘ स्वदेशी ’ का प्रयोग किया। तथापि स्वराज शब्द को मूल अर्थ में प्रयुक्त करने का श्रेय गांधी को की जाता है जहाँ इसे व्यक्तिगत आत्मशासन के रूप में प्रयुक्त करने का श्रेय गांधी को जाता है जहाँ इसे व्यक्तिगत आत्मशासन के रूप में प्रयोग करके राष्ट्रीय स्वशासन तथा आत्मनिर्भरता के साथ जोड़ा गया। गांघी ने स्वदेशी को स्वराज प्राप्त करने का माध्यम माना। उसने व्यक्तिगत स्वशासन अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामुदायिक स्वशासन्त अर्थात् राष्ट्रीय स्वतंत्रता में सामंजस्य लाने की कोशिश की।

स्वराज की धारणा का विश्लेषण करते हुए गांधी ने व्यापक स्तर पर संपूर्ण नैतिक स्वतंत्रता तथा संकुचित अर्थ में व्यक्ति अथवा राष्ट्र की नकारात्मक स्वतंत्रता में विशेषकर आंतर किया। जैसा कि उसने लिखा ‘ मेरे पास इंगलिश ‘ में समझाने के लिये उपयुकत शब्द नहीं हैं। स्वराज का मूल अर्थ है आत्म – शासन। इसे अंतः करण का अनुशासित शासन भी कहा जा सकता है। अंग्रेजो के शब्द Independent अर्थात् स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं निकलता स्वतंत्रता का अर्थ है बिना रोक टोक अपनी मनमर्जी करने की छूट। इसके विपरीत स्वराज की धारणा सकारात्मक है। स्वतंत्रता नकारात्मक है….स्वराज एक पवित्र शब्द है, एक दैविक शब्द है जिसका अर्थ है आत्मशासन तथा आत्म नियंत्रण, न कि सभी के बंधनों से मुकित। आईये हम इस पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करें।

स्वराज का अर्थ व्यक्ति अथवा राष्ट्र की ऐसी स्वतंत्रता से नहीं है जो दूसरों से कटी हुई अलग – थलग हो। यह ऐसी स्वंतत्रता भी नही है जिसमें दूसरों के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व की अभाव है जो ऐसी स्वतंत्रता के दावेदार है। एक स्वतंत्र व्यक्ति अथवा राष्ट्र न तो स्वार्थी हो सकता है और न ही इसरों से अलग थलग।

आत्मशासन का अर्थ आत्मीनर्भरता भी हैँ अर्थात् एक व्यक्ति अथवा राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता स्वयम् अनुभव करता है। स्वयम् को स्वतंत्र अनुभव करना और वास्तविक स्तर पर स्वतंत्र होना एक समान नहीं है। दूसरे शब्दों में, दूसरों के प्रत्यन से प्राप्त की गई स्वतंत्रता, चाहे वह कितनी ही हितैषी हो, उत्तनी देर तक संभव होगी जब तक दूसरे की दयादृष्टि रहेगी। स्वराज की धारणा से आभिप्राय है कि व्यक्ति आत्म – शासन के लिए सक्षम है अर्थात् वह इस बात की जांच करने योग्य हैं कि वह कब वास्तविक दृष्टिकोण से स्वतंत्र है तथा वह इसका परीक्षण दूसरों पर अपनी निर्भरता की सीमा से कर सकता है। गांधी के स्वशासन के इस अधिकार को जन्मजात मना। गांधी के अनुसार उसे आज तक यह समझ में नहीं आया कि उन लोगो को, जो स्वयम को योग्य एवम् अनुभवी कहते हैं, दूसरों को स्वराज के आधिकार से वंचित करने में क्या मजा आता है। वे लोग जो स्वतंत्रता का दम भरते हैं और दूसरों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित करते हैं, वास्तव में स्वतंत्रता की धारणा में विश्वास करने पर शक पैदा करते है।

  • गांधी ने व्यक्ति के स्वशासन अथवा स्वतंत्रता के अधिकार को व्यक्ति की स्वायत्त नैतिक प्रकृति का अंग माना।
  • उन्होने समाज का अस्तित्व भी व्यक्ति की इस वास्तिक स्वतंत्रता पर निर्भर मना।
  • उन्होने कहा यदि व्यक्ति को इस स्वतंत्रता से वंचित कर दिया जाये तो वह एक यंत्र मात्र बन कर रह जायेगा। इस प्रकार से समाज का ही नाश हो जायेगा।
  • उन्होने यह स्पष्ट कर दिया व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार को छीन-कर कोई भी समाज अपना निर्माण नहीं कर सकता।
  • नकारात्मक स्वतंत्रता के विपरीत गांधी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की नैतिक तथा समाजिक अनिवार्यता पर बल दिया।

स्वराज की एक अन्य विशेषता है कि यदि स्वतंत्रता व्यक्ति की प्रकृति का एक अंग है तो यह उसे दिया जाने वाला उपहार नहीं हैं। इसे केवल आत्म – जागृति तथा आत्म – प्रयत्न द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जैसा गांधी ने कहा – हमारे द्वारा प्राप्त की गई बाहरी स्वतंत्रता वास्तव में हमारी आंतरीक स्वतंत्रता की स्थिति के अनुपात पर निर्भर करती है .. हमारी सारी ऊर्जा आंतरिक सुधार पर  केद्रित होनी चाहिए। ‘ दूसरे शब्दों में गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ती के संदर्भ मे सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति पर डाल दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्ती के संदर्भ में सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति पर डाल दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी बाहरी खतरा दूसरों की वजह से कम तथा हमारी आंतरिक कमजोरी के कारण अधिक है।

अतः गांधी की स्वराज की धारणा के साथ जुड़ी हुई एक अन्य धारणा आत्मशुद्धि (self-purifcation) की बात की जो समाज तथा राजनीति के संदर्भ में नैतिक स्तर पर व्यक्ति के स्वतत्रंता के दावे को प्रभावशाली बनाने के लिए शक्ति तथा क्षमता प्रदान करती है। स्वतंत्रता के अधिकार का दावा करने का अर्थ है स्वतंत्रता को सुरक्षित तथा संरक्षित रखाने की तत्परता को भी स्वीकार करना।

गांधी की स्वराज की धारणा व्यक्ति एवम्र राष्ट्र दोनों पर समान रूप से लागू होती है। उसने व्यक्तिगत तथा सामूहिक स्वशासन, विशेषत: व्यक्ति तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संबंध को बार- बार दोहराया। स्वराज के लिए पहला कदम व्यक्ति से आरंभ होता है। यह एक वास्तविक सच्चाई है कि जैसा व्यक्ति जैसा राज्य। वास्तव में गांधी ने एक आत्म – चेतन व्यक्ति को वरीयता दी तथा सामूहिक ईकाई को महत्त्व नहीं दिया। जैसा कि उसने घोषणा की – समुदाय के स्वराज का अर्थ सुदाय में रहने वाले व्यक्तियों का स्वराज। स्वयं पर शासन ही असली स्वराज है, इसे मोक्ष अथवा मुक्ति का नाम भी दिया जा सकता है।’  इसी लह एक अन्य स्थान पर गांधी ने समान विचार व्यक्त किये, ‘ राजनीतिक स्वशासन अर्थात् समाज के बहुसंख्यक पुरुषों एवम्र स्त्रियों के लिए स्वशासन व्यक्तिगत स्वशासन से बेहतर नहीं है और इसे भी एसे ही प्राप्त करने की आवश्यकता है जैसे व्यक्तिगत स्वशासन।

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