वृद्धि एवं विकास का अर्थ
बाल वृद्धि एवं बाल विकास CTET की परीक्षा तैयारी का एक महत्वपूर्ण विषय है । पिछले प्रश्न पत्रों के आधार पर यह देखा गया हैं कि इस विषय से संबंधित बहुत से प्रश्न परीक्षा में पूछे गए हैं अतः बाल वृद्धि एवं बाल विकास के सम्बन्ध में जानना बहुत जरूरी है । इस लेख में हम बाल वृद्धि एवं बाल विकास की अवधारण (Concept) के बारे में चर्चा करेंगें जो परीक्षा की तैयारी में मददगार हो सकता है ।
वृद्धि का अर्थ शारीरिक वृद्धि से है ( Physical Growth ) जैसे जैसे बच्चे बड़े होते है वैस वैसे उनके शरीर के अंग बढ़ते जाते है । साधारण तौर पर वृद्धि का अर्थ बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों का विकास एवं अंगों की कार्य करने की क्षमता से लिया जाता है । शारीरिक वृद्धि के द्वारा उसकी कार्य-क्षमता का पता लगाया जा सकता है । वृद्धि बच्चे के व्यवहार को भी किसी न किसी रूप मे प्रभावित करती है ।
वृद्धि की परिभाषा :अलग अलग विद्वानों ने वृद्धि और विकास को अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है
हरबर्ट सोरेन्सन ( Herbert Sorenson ) : ने तो शारीरिक वृद्धि को बड़ा भारी होना बताया है । अर्थत शारीरिक अंगों में भार तथा आकार में वृद्धि होना है और ऐसी वृद्धि जिसको मापा जा सकता हो ।
फ्रैंक ने वृद्धि को परिभाषित करते हुए बताया है : “ शरीर के किसी विशेष पक्ष में जो परिवर्तन होता है, उसे वृद्धि कहते है । इस प्रकार से वृद्धि शरीर के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन के साथ साथ शरीर के लम्बाई, चौड़ाई ऊंचाई एवं भार (वजन) को व्यक्त करता है ।
बाल विकास का अर्थ (Child development )
अर्थ – विकास का अर्थ गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़वस्था तक के होने वाले विभिन्न परिवर्तन को कहते है। विकास का कार्य गर्भावस्था से ही शुरू हो जाती है । इस प्रकार से विकास की यह प्रक्रिया गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, एवं प्रौढ़वस्थाओं इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता तक पहुँचती है ।विकास एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है । वृद्धि एक समय के बाद रूक जाती है परन्तु विकास एक निरान्तर प्रक्रिया है ।
बाल विकास की परिभाषा –
स्किनर के शब्दो मे : विकास जीव और उसके वातावरण की अन्तः क्रिया का प्रतिफल है ।
हरलाँक के शब्दो में : “ विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है । इसके बजाय, इसमें परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है । विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं । “
गेसेल के शब्दो में : “ विकास, प्रत्यय से अधिक है । इसे देखा, जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं – शरीर अंक विशलेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है इस सब में व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है । “
इस प्रकार से विकास के अर्न्तगत मानसिक, समाजिक , सवेगत्मक तथा शरीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनो को शामिलित किया जाता है । इससे व्यक्ति की कार्य कुशलता एवं व्यवहार मे प्रगति की जानकारी प्राप्त होती है ।
वृद्धि मात्रक परिवर्तनों को प्रकट करती है वही दूसरी ओर विकास गुणात्मक परिवर्तन को प्रकट करती है । इस प्रकार से वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया साथ साथ चलती है और वह एक दूसरे की पूरक है ।
वृद्धि एवं विकास में अन्तर
वृद्धि | विकास |
---|---|
वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परिवर्तन | विकास एक निरान्तर प्रक्रिया है । |
वृद्धि संकुचित है चूंक वृद्धि की आधारण विकास की अवधारणा का ही एक भाग है । | विकास वृद्धि की अपेक्षा अधिक व्यापक है। |
वृद्धि का तात्पर्य मात्रक एवं परिणात्मक परिवर्तनों को प्रकट करता है - | विकास गुणात्मक परिवर्तनो को प्रकट करता है |
वृद्धि निरंतर नही चलती और शिशुकाल के पश्चात धीमी पड़ जाती है | विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है वह रुकती नहीं है । |
मानव विकास का अर्थ :
मानाव विकास की प्रक्रिया निरान्तर चलती रहती है यह कभी रूकती नहीं है ।
मानव विकास की आवस्थाएँ –
मानव विकास की प्रक्रिया निरान्तर चलती रहती है यह क्रम माता के गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है । यह कभी रुकती नहीं है ।
मानव विकास की आवस्था को निम्नलिखित भागों में बंटा गया है ।
- गर्भावस्था ( गर्भधारण से जन्म तक )
- शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 5 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
- युवास्था – 18 वर्ष से 25 वर्ष तक
- प्रौढ़ आवस्था – 25 वर्ष से 55 वर्ष तक
- वृद्धा आवस्था – 55 वर्ष से मृत्यु तक
मानव विकास की आवस्थाओं को लेकर भारतीय विद्वानो में एक मत नही है ।
अधिकतर विद्वान मानव विकास को चार आवस्थाओं में बांटते है ।
- शैशवावस्था – जन्म से 5 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
- युवाआवस्था – 18 वर्ष से मृत्यु तक
शिक्षा की दृष्टि से मानव विकास के तीन अवस्थाओं को ही महात्व दिया जाता है । मनोवैज्ञानिकों ने उन तीन अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों को ही शिक्षा अध्ययन में शामिल किया है जो निम्नलिखित है –
- शैशवावस्था — जन्म से 6 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
शैशवावस्था – जन्म से लेकर 6 वर्ष की अवस्था को शैशवावस्था -कहते है । इस अवस्था में बच्चे का शारीरिक विकास तेजी से पाया जाता है विशेष कर 2 से 5 वर्ष के बीच में बच्चे के शारीरिक विकास एवं भार में तेजी से परिवर्तन होता है । इस अवस्था में बालक माता पिता एवं उनके परिवारजनों पर निर्भर रहता है । इस अवस्था में बालक का मन विकसित नही होता है । उसे भले बुरे एवं सही गलत की जानकारी नही होती है । यह समय बालक के अबोध मन ( Unconscious mind ) की अवस्था है । इस अवस्था में बालक का मानासिक विकास कम होता है और यह प्रक्रिया धीमी गति से चलती है । इस अवस्था में बच्चा एक ही बात को बार बार बोलता है । कहा जाता है कि इस अवस्था में बालक लगभग 7 से 8 लाख तक सवाल पूछता रहता है । इस अवस्था मे बालक नकल द्वारा सीखने की कोशिश करता है । अतः इस अवस्था में पारिवारिक वातावरण बच्चे के विकास में बहुत कुछ प्रभावित करती है ।
शारीरिक विकास के साथ साथ बालक के मन एवं मस्तिष्क का भी विकास होता है । यह कार्य साथ साथ चलता रहता है । मनोवैज्ञानिकों ने इसे तीन भागों में बांट है।
- अबोध मन – ( Unconscious Mind ) जन्म से 5 वर्ष तक
- उपबोधमन ( Subconscious Mind ) 6 वर्ष से 12 वर्ष
- बोधमन ( Conscious Mind ) 12 वर्ष से मृत्यु तक
- बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था कहते है । 6 वर्ष से 9 वर्ष के बीच का समय बालक के उपबोध मन ( Subconscious Mind ) की अवस्था है । इस अवस्था में बालक को कुछ बहुत अच्छे बुरे एवं सही गलत की जानकारी होती है । शैशवावस्था में जहाँ विकास की प्रक्रिया तेज पायी जाती है वही बाल्यावस्था में विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है । मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस अवस्था में बालक की तर्क शक्ति एवं चिन्तन की क्षमता बढ़ जाती है । इस अवस्था में बालक माता पिता एवं परिवार जनों के अलावा अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता है चूंकि वह स्कूल जाना शुरू कर देता है । अतं इस अवस्था में स्कूल का वातावरण, उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे एवं उनको पढ़ाने वाले शिक्षको के व्यवहार उनके विकास को प्रभावित करता है । चूंकि अलग अलग बच्चे की तर्क शक्ति एव उनके चिंतन की क्षमता अलग अलग पाई जाती है अतः शिक्षकों को उनके अनुकूल विभिन्न अध्ययन पद्धति का उपयोग करना चाहिए ।
- किशोरावस्था : 12 वर्ष से 18 वर्ष की अवस्था को किशोरावस्था कहते हैं । इस अवस्था में बाल्यावस्था की अपेक्षा किशोरावस्था में शारीरिक विकास में तेजी पायी जाती है । इस अवस्था में शरीर की लम्बाई एवं उसके भार में भारी परिवर्तन आता है । लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई भार एवं मांसपेशियों में वृद्धि तेजी से पायी जाती है । इस अवस्था में बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है, और अच्छे – बुरे एवं सही गलत की पूर्ण जानकारी होती है । मनोवैज्ञानिक आधार पर यह बोध मन (Concious Mind ) की अवस्था है ।
इस अवस्था में लड़के एवं लड़कियों के प्रजनन अंग एवं मांसपेशियों का विकास होता है जो लड़कों एवं लड़कियों में अर्थात् विपरीत लिंग के बीच आकर्षण को बढ़ाता है । यह आवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण अवस्था है । चूंकि इसी अवस्था में बालक की भविष्या निर्धारित होती है । इस अवस्था में बहुत से उतार चढ़ाव आते है और उफनती नदी की तरह होती है । इसलिए इस अवस्था को तूफान की आवस्था कहते है चूकि इस आवस्था में यौन सम्बन्ध, अपराध नशा-पान एवं कुसंगति की ओर बढने की संभावना प्रबल होती है । इस आवस्था में उनके माता पिता समाजिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, वातावरण का उनके विकास को प्रभावित करती हैं ।
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Very nice