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Hindi Grammar for Competitive Exams-हिन्दी व्याकरण-Hindi Vyakaran

By Roshan Ekka

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भाषा : भाषा विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है , जिसे सम्प्रेषण कहा जाता है, जिसकी सहायाता से हम अपनी बात को कह पाते है और विचरों (भावों) एवं भावनाओं को अभिव्यक्ति करते है । भाषा शब्द की उत्पति संस्कृत की ‘भाष्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है – बोलना या कहना या अपनी वाणी को प्रकट करना ।

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भाषा के अंग

  1. वर्ण : ‘ध्वनि’ या वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई होती है । उदहरण – जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।
  2. वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते है । देवनागरी लिपि की वर्णमाला में 44 वर्ण (अक्षर) हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं जो है –
  3. (क) स्वर
  4. (ख) व्यंजन

स्वर –

वे वर्ण जो बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता से  स्वतन्त्र रूप से उच्चरित होते हैं तथा व्यंजन मे  उच्चारणे को सहायता प्रदान करते है,स्वर कहलाते हैं जैसे:  अ, आ, इ, ई, उ,ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ । ये 11 अक्षर स्वर कहे जाते हैं ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किये गऐ हैः

  • ह्रस्व स्वर – ऐसे स्वर जिन के उच्चारण में कम से कम वक्त लगता हैं ह्रस्व स्वर कहलाते हैं । ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ।
  • दीर्घ स्वर – इसके विपरीत ऐसे शब्द जो ह्रस्व स्वर से अधिक वक्त लेते हैं दीर्घ स्वर कहलाते हैं ।
  • प्लुत स्वर – ऐसे स्वर जिस मे दीर्घ स्वर से भी अधिक वक्त लगता हो प्लुत स्वर कहलते है ।

व्यंजन –

स्वरों की सहायता से बोले गये वर्ण ‘व्यंजन’ कहलाते हैं। जैसे : क ख ग घ ङा च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण । त थ द ध न प फ ब भ म । र ल व श ष स ह

इन 33 अक्षरों को व्यंजन कहा जाता है ।

इनके आलावा वर्णमाला में तीन अक्षर – क्ष, त्र, ज्ञ, और हैं । ये संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं और इनकी रचना क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, = ज्ञ द्वारा हुई है ।

उच्चारण की पृथकता के करण इनके लिए अलग लिपि विकसित की गई है । जिन व्यंजनो के उच्चारण मे संस की मात्रा कम लगानी पड़ती है उन्हे ‘ अल्पप्राण ‘ कहते हैं । क, ग, च, ज; इत्यादि ‘ अल्प’ प्राण ‘ हैं । ( पहला तथा तीसरा वर्ण ) जिन व्यंजनो के उच्चारण में साँस की मात्रा अधिक लगानी पड़ती है , उन्हें ‘ महाप्राण ‘ कहते हैं ख, घ, छ, झ ; शादि ‘ महाप्राण ‘ है। ( दूसरा तथा चौथा वर्ण )

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अनुस्वार और विर्सग :

अनुस्वार का चिन्ह स्वर के ऊपर एक बिन्दी ( अं ) तथा विसर्ग का चिन्ह स्वर के आगे दो बिन्दियाँ ( अः ) है । व्यंजनो के समान ही इनके उच्चारण में भी स्वर की आवश्यकता पड़ती है किन्तु अंतर यह है कि अनुस्वार और विसर्ग मे स्वर पहले उच्चरित होता है , जबकि व्यंजनों के उच्चारण में स्वर बाद में आता है जैसे –

अ + ( * ) = अं, अ + ( : ) = अः क् + अ = क , च् + अ = च ।

चन्द्रबिन्दु

नासिका से उच्चरित होने वाले स्वरों के ऊपर अनुनासिक चिन्ह ( * ) चन्द्रबिन्दु लगाया जाता है जो वर्ण के साथ ही उच्चारित होता है , जैसे – कहाँ, साँड़ आदि ।

शब्द :

एक या आधिक वणों से बनी ध्वनि शब्द कहलाती है ।

शब्द व्यक्त और अव्यक्त दो प्रकार के होते हैं –

(¡) व्यक्त या वर्णात्मक शब्द – जिसमे वर्ण स्पष्ट सुनाई देती हैं, जैसे – राम, गऊ, हाथी ।

(¡¡) अव्यक्त या ध्वन्यात्मक शब्द – इनमें वर्णों की स्पष्टता नहीं होती । ये शब्द यथासंभव प्रायः ध्वनियों के अनुकरण पर निर्धारित होते हैं, जैसे – ढोल का बजना, ढमाढम; घोड़े का हिनहिनाना, बन्दर का खों खो करना आदि ।

शब्द के भेद : व्युत्पत्ति के आधार पर शब्दों के तीन भेद बताए जाते हैं

  1. रुढ : जो शब्द किसी दूसरे शब्द के योग से नहीं बनते और विशेष अर्थ को प्रकट कहते हैं या ऐसे शब्द जिनमें केवल एक ही अर्थ का बोध होता है और उनके खण्ड करने पर कोई ठीक अर्थ नही निकलता ऐसे शब्द रुढ़ शब्द कहलाते हैं ; जैसे – घर, गऊ,आँख,घोड़ा,हाथी, पानी,मोर,गौरेया आदि ।
  2. यौगिक :जो शब्द दो या दो से आधिक शब्दों के मेल से बनते हैं, यौगिक शब्द कहलाते हैं । इन्हें अलग अलग करने पर उनका स्पष्ट अर्थ प्रतीत होता है; जैसे – हिमालय,पाठशाला,घुड़सवार,रसोईघर, अतिथिगृह, विद्यार्थी आदि ।

योगरूढ़ – जो शब्द यौगिक होते हुए भी किसी विशेष अर्थ को स्पष्ट करते हैं, वे योगरूढ़ कहलाते है ; जैसे – रामकहानी ( आत्मकथा ) राजपूत ( क्षत्रिय ) दशानन ( दस हैं मुख जिसके अर्थात – रावण ) , ( लम्बा है उदर (पेट) जिसका अर्थात – गपेश जी ) ।

वाक्य :

शब्दों के सही क्रम से वाक्य का निर्माण होता है अर्थत दो या दो से अधिक वाक्य  जिसका अर्थ पूरा पूरा निकलता हो वाक्य कहलाते है ।

व्याकरण

व्याकरण के अन्तर्गत भाषा को शुद्ध एवं सर्वमान्य या मानक रूप में बोलना, समझना, लिखना व पढ़ना सीखते हैं  अर्थत – शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना ।

लिपि :

ध्वनियों को अंकित करने के लिए कुछ चिन्ह निर्धारित किए जाते हैं उन्हे लिपि कहते है , या किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने की प्रणाली को लिपि कहा जाता है ।

हिन्दी भाषा का विकास –

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है । प्राचीन काल की लोकभाषा ‘ प्राकृत ‘ से अपभ्रंश नामक लोकभाषा का विकास हुआ । हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, उड़िया, बंगला आदि भाषाओं का विकास इसी अपभ्रंश से हुआ है । हिन्दी को संविधान में राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है । हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है ।

हिन्दी के शब्द –

हिन्दी भाषा में चार प्रकार के शब्द मिलते हैं जो  निम्नलिखित है –

तत्समः

संस्कृत के वे शब्द जो हिन्दी में अपने मूल रूप मे प्रयोग होते हैं – अर्थतः ऐसे  शब्द जो सस्कृत से बिना कोई रूप बदले ग्रहण कर लिए गये हैं तत्सम शब्द कालते है । जैसे- माता, पिता, ग्रीष्म, वर्षा , गोशाला, अग्नि, वायु, प्रकाश, पुत्र, सूर्य आदि।

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‘हिन्दी’, ‘बांग्ला’, ‘मराठी’, ‘गुजराती’, ‘पंजाबी’, ‘तेलुगू’ ‘कन्नड़’, ‘मलयालम’, ‘सिंहल’ आदि भाषाओं में बहुत से शब्द संस्कृत से सम्मिलित है , क्योंकि इन सभी भाषाओं का उदय संस्कृत से ही हुआ है।

तद्भव :

(तत् + भव = उससे उत्पन्न) तत्सम शब्दों में समय और परिस्थितियों के कारण कुछ परिवर्तन होने से जो शब्द बने हैं उन्हें तद्भव शब्द कहते है ।

(तत् + भव) शब्द का अर्थ है- ‘उससे होना’ अर्थात संस्कृत शब्दों से बिगड़ कर अन्य रुप में परिवर्तित होना  तद्भव शब्द कहलाते है ।

हिन्दी में अनेक शब्द ऐसे हैं, जो निकले तो संस्कृत से ही हैं, किंतु प्राकृत, अपभ्रंश, समय के बितने के करण बदल गए है । अर्थतः इन शब्दो का मूल संस्कृत ही है, किन्तु हिन्दी मे इनका प्रयोग विकृत रूप में किया जाता है, जैसे – खेत (क्षेत्र) , आग (अग्नि), सूरज ( सूर्य ) दूध (दुग्ध) आदि ।

भारतीय भाषओ में तत्सम और तद्भव के अलवा कुध शब्द देशज या कुध शब्द विदेशी है ।

देशज शब्द :

यह वह शब्द है जिसमे क्षेत्रीय भाषओ का प्रभाव साफ देखा जाता है , इनमें बहुत से शब्द जो भारतीय भाषाओं या क्षेत्रीय बोलियों से ले लिए गए हैं, जैसे –  लोटा, थाली, सोंटा, गमछा ,पगड़ी , पाँव, नाक खिड़की , जूता , पेट , आदि।

विदेशी :

भारतीय शब्दों के अलावा अरबी, फारसी , फ्रेंच, पुर्तगीज तथा अंग्रेजी भाषा के ऐसे शब्द जो हिन्दी में यथावत् अथवा किंचित् परिवर्तन के साथ अपना लिए गए हैं , जैसे – स्कूल, पादारी, गरीब, पेन्सिल, गवाह आदि ।

विकारी शब्दः

संज्ञा , सर्वनाम , विशेषण , और क्रिया – ये चार प्रकार के ऐसे शब्द होते हैं जिनका स्वरूप लिग, वचन कारक के अनुसार बदल जाता है । इस प्रकार के शब्दों को विकारी कहा जाता है, जैसे – बालक, मैं, तुम, लिखना, जाना आदि ।

अविकारी शब्द :

कुध ऐसे शब्द होते हैं जैसे- क्रिया विशेषण, संबंध बोधक, योजक, विस्मयादि बोधक जिनका रूप परिवर्तन नही होता, उन्हें अविकारी कहा जाता है,जैसे – अब, ओह, अहा, वाह आदि ।

शब्दों का व्याकरणिक विवेचन

वाक्य में प्रयोग के अनुसार व्याकरणिक दृष्टि से शब्दों के आठ भेद माने गए हैं –

  1. संज्ञा
  2. सर्वनाम
  3. विशेषण
  4. क्रिया
  5. क्रियाविशेषण
  6. सम्बन्ध – सूचक,
  7. समुच्चय – बोधक
  8. विस्मयादि – बोधक ।

संज्ञा ( Noun ) :

किसी पदार्थ, किसी व्यक्ति(नाम) ,  भाव अथवा स्थान का बोध करने वाले शब्द संज्ञा कहलते हैं । संज्ञा के पाँच भेद है । जो इस प्रकार है –

  • समूहवाचक संज्ञा – एंसे संज्ञा शब्द जिससे किसी समूह ( सभा ) का बोध होता है  समूहवाचक संज्ञा कहलते है जैसे- दल, गिरोह , कक्षा, भीड़ सेना, मेला आदि ।
  • भाववाचक संज्ञा – ऐसे संज्ञा शब्द जिससे उस वस्तु ( पदार्थ ) की सम्पूर्ण अवस्था का बोध होता हो भाववाचक संज्ञा कहलते है जैसे – स्नेह, जवानी, बुढ़ापा, हरियाली,शीतलता, मिठास,नमकीन, बचपन,मित्रा, मोटापा, आदि।
  • जातिवाचक संज्ञा – ऐसे संज्ञा शब्द जिससे उसकी सम्पूर्ण जाति का बोध होता हो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते है, जैसे – लड़का,  मानव, नदी, नगर, स्वर्ण, सरिता, पर्वत, भवन ,पशु, पक्षी, कुत्ता, गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी, नारी, गाँव आदि
  • व्यक्तिवाचक संज्ञा – जिस शब्द से किसी एक पदार्थ, व्यक्ति अथवा स्थान का बोध होता है वह व्यक्तिवाचक संज्ञा कहलाते है, जैसे – कंगन, श्याम प्रसाद, अमेरिका, वाराणसी, यमुना, गंगा आदि ।
  • द्रव्यवाचक संज्ञा – ऐसे संज्ञा शब्द जिस से  किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध होता है, द्रव्यवाचक संज्ञा कहलते है जैसे – सोना, चाँदी, दाल, चावल घी, तेल, पीतल, लोहा, चावल, गेहूँ, कोयला आदि।
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लिंग –

ऐसे संज्ञा शब्द जिस से उसके स्त्री अथवा पुरुष जाति के होने का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं।

हिन्दी में लिंग के दो भेद हैं – (1) पुल्लिंग (2) स्त्रीलिंग

  • पुल्लिंग – जिन संज्ञा शब्दों से उनके पुरुष जाति के होने का बोध होता है, वे पुल्लिंग कहलाते हैं; जैसे- घोड़ा, बालक,नायक,राजा, आदि।
  • स्त्रीलिंग – जिन संज्ञा शब्दों से उनके स्त्री जति के होने का बोध होता है , वे स्त्रीलिंग कहलाते हैं;  जैसे – घोड़ी, बालिका, नायिका, रानी आदि।

सर्वनाम ( Pronoun) :

ऐसे शब्द जो संज्ञा के स्थान पर( बदले रूप में ) प्रयुक्त होते है सर्वनाम कहलाते हैं । जैसे-  मैं (बोलने वाला), तू (सुनने वाला), यह (निकट-वर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु) इत्यादि।

प्रयोग के आधार पर सर्वनाम के सात भेद हैं –

(i) पुरुषवाचक ( मैं, तुम, आप ) ;

(¡¡) निश्चयवाचक ( यह, वह ,ये, वह, वे);

(¡¡¡) अनिश्चयवाचक ( कोई , कुछ )

(¡v) प्रश्नवाचक ( कौन, क्या )

(V) सम्बन्धवाचक ( जो, जिस , उस, जैसी – वैसी );

(v¡) सह सम्बन्धवाचक ( सो, वह ) तथा

(vvii) निजवाचक ( स्वयं, खुद )

विशेषण :

ऐसे शब्द जो वाक्य में सज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता प्रकट करते है, विशेषण कहलाते है ; जैसे – कला, मीठा, सुन्दर आदि ।

विशेषण मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं-

  1. गुणवाचक (Adjective of quality )
  2. संख्यावाचक ( Adjective of number )
  3. परिणामवाचक ( Adjective of quantity )
  4. संकेतवाचक (Demonstrative adjective)
  • गुणवाचक : ऐसे शब्द जिन से संज्ञा और र्सवाम का गुण का बोध होता है गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं ; जैसे- रूप रंग, दशा,आकार आदि।
  • संख्यावाचक : जिस विशेषण से सज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध होता है इस प्रकार के विशेषण को संख्यावाचक विशेषण कहते हैं ;जैसे- सौ ग्राम घी, पाँच किलो लड्डू,पहला लड़का, तीन बच्चे आदि ।
  • परिणामवाचक : ऐसे विशेषण जिस से किसी वस्तु के परिणाम या माप-तौल से जो ज्ञात होता है वह परिणामवाचक विशेषण कहलात हैं जैसे- थोड़ा, बहुत, जादा, एक मीटर,दो किलों आदि ।
  • सकेतवाचक : ऐसे शब्द जिनमें कोई सकेंत या निर्देश प्रकट होता है , जैसे – यह पुस्तक, वह व्यक्ति, ऐसा रास्ता, वैसा राज्य आदि ।

कारक:

शब्द के जिस रुप से संज्ञा अथवा सर्वनाम का सम्बन्ध वाक्य के अन्य शब्दों से जाना जाता है , कारक कहलाता है । हिन्दी भाषा में आठ कारक होते हैं ।

क्रिया :

जो शब्द किसी कार्य के करने अथवा होने का बोध कराते हैं , क्रिया कहलाते हैं । क्रिया के दो भेद होते हैं –

  • सकर्मक क्रिया : जिन क्रियाओं का कोई कर्म होता है और क्रिया का फल कर्ता पर न पड़कर किसी और पर पड़ता है, वे सकर्मक क्रियाएँ कहलाते है; जैसे रिया दूध पीती है ।
  • अकर्मक क्रियाएँ : जिन क्रियाओं का कोई कर्म नही होता तथा क्रिया का फल कर्ता पर पड़ता है, वे अकर्मक क्रियाएँ होती हैं; जैसे – रीमा दौड रही है।

काल :

क्रिया का वह रूप जिससे किसी कार्य के होने के समय का पाता चलता है, काल कहलाता है।

काल तीन प्रकार के होते हैं –

  • वर्तमान काल – क्रिया के जिस रूप से यह पता चलता है कि कार्य अभी हो रहा है अथवा कार्य की निरन्तरता का पाता चलता है, उसे र्वतमान काल कहते है ;
  • भूतकाल क्रिया का वह रूप जिससे पाता चलता है कि कार्य पूर्व में पूरा हो गया है, भूतकाल कहलाता है ;  जैसे – सोनम ने दूध पिया ।
  • भविष्यत् काल : क्रिया का वह रूप जिससे किसी कार्य के भविष्य में होने अथवा करने का बोध होता है, भविष्यत् काल कहलाता है; जैसे – गीता स्कूल जाएगी ।

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